मानवीय गरिमा और मानवाधिकार : भारतीय दृष्टिकोण

Dr Dharmendra Yadav

नैतिक रूप मे मानवाधिकारो का इतिहास बहुत प्राचीनहै एक अवधारणा के रूप में मानवाधिकार दुनिया की लगभग सभी महान संस्कृतियों में विद्यमानरहा है । यहां तक कि विश्व के लगभग समस्त धार्मिक ग्रंथों में भी मानवाधिकारों की उपलब्धताकिसी न किसी रूप में हमें दिखाई देती है किंतु एक कानूनी अवधारणा के रूप में मानवाधिकारआधुनिक युग की देन है और इस रूप में इसका स्वरूप हमें पश्चिमी अवधारणा के रूप में दिखाई देता है । भारतीय परंपरा में मानवाधिकारमानवाधिकारों की यात्रा लंबी रही है सनातन काल के नैतिक अवधारणा से लेकर आधुनिक कालकी कानूनी अवधारणा तक भारतीय परंपरा में मानवाधिकारों की उपलब्धता हमेशा से रही है  । सनातन काल से लिखित और श्रुति साहित्य दोनों हीमें यह उपलब्ध रही हैं ।  ऋग्वेद से लेकर रामचरितमानसतक इसकी प्रतिध्वनी स्पष्ट रूप से सुनाई देती है । भारतीय संस्कृति सनातन परंपरा औरभारत के धार्मिक साहित्य, लोक साहित्य,  लौकिकऔर अलौकिक समस्त प्रकार के साहित्य में सनातन काल से मौलिक अधिकारों की उपलब्धता  रही है । कालांतर में विदेशी आक्रांताओं द्वाराबलपूर्वक समाजों पर कब्जा किया जाना और उनके राजनीतिकरण किए जाने के कारण मानवाधिकारोंके सामने गंभीर संकट उत्पन्न हुआ जिसका निराकरण मे भारतीय संविधान की स्थापना और उसमेंमानवाधिकारों के स्पष्ट घोषणा मानवाधिकारों को मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता केसाथ प्राप्त होती है ।

मानवाधिकारों के भारतीय हिंदू दृष्टिकोण कोसंयुक्त राष्ट्र संघ सहित विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने मान्यता प्रदान की हैतथा उसे स्वीकार किया है इसके अलावा विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ऑक्सफोर्डकैंब्रिज जॉन्स हापकिंस, हार्वर्ड आदि में मानवाधिकारों के बारे में हिंदू दृष्टिकोणअध्ययन के प्रमुख विषय विषय के रूप मे अध्ययन मानवाधिकारो की अवधारणात्मक श्रृंखलाका महत्वपूर्ण हिस्सा है ।

 

महत्वपूर्णशब्दावली : भारतीय, भारतीय परम्परा, धार्मिक साहित्य,हिन्दूदृष्टिकोण, मानवाधिकार, सनातन,।



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How to cite this article:
बाजपेयी एन. एवं सिंह ए. ( 2023) : मानवीय गरिमा और मानवाधिकार : भारतीय दृष्टिकोण " 6 : 8 (2021) p. 79 - 87 DOI: -