उन्नीसवींसदी के उत्तरार्ध में जिन विचारकों ने विश्व-बंधुत्त्व और उसकी आवश्यकता पर सर्वाधिक जोर दिया, उनमें स्वामी विवेकानन्दसर्वप्रमुख हैं। एक क्रांतिकारी युवा सन्यासी के रूप में 1893 के शिकागो विश्व धर्म-संसद में उनके विश्व-प्रसिद्ध व्याख्यानने विश्व-पटल पर एक अमिट छाप छोड़ी।1 11 सितम्बर 1893 को उनके सम्बोधन के पहलेवाक्याँश- ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ ने लगभग सात हजार श्रोताओंकेा मंत्रमुग्ध कर दिया और उनके सम्मान में वे लोग लगातार दो मिनट तक करतल ध्वनि करतेरहे। यह टिप्पणी उस अद्वैत वेदान्त की व्यवहारिक अभिव्यक्ति थी, जिसमें ‘स्व’ व ‘पर’ का कोई भेद नहीं माना गयाऔर जिसकी प्रस्तावना भारतीय संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’2केरूप में की गयी है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि विश्व-बंधुत्त्व की स्थापना में जो सबसे बड़ेबाधक हैं, उनमें पंथवाद, धर्मांधता और धार्मिक दुराग्रहप्रमुख हैं, जिन्होंने मनुष्यों को विभिन्नअतिवादी सामाजिक और धार्मिक समूहों में विभाजित कर उन्हें उसी में सीमित कर दिया। इनसमूहों की अतिवादी मान्यताओं ने पूरे विश्व को हिंसा व रक्तपात से भर दिया। भारतीयसंस्कृति और हिन्दू धर्म इन सब विकृतियो से मुक्त रहा है ।लेकिन स्वामी विवेकानन्दइस बात की अनुशंसा नही कर रहे कि अन्य सभीधर्मों के अनुयायी हिन्दू धर्म का पालन करें, अपितु उनका इस जोर बात पर है कि कैसे सभी धर्मों को उदार बनायाजाए और उनमें सामंजस्य स्थापित किया जाए,कैसेधर्म में व्याप्त कुरीतियों और आडम्बरों को दूर कर उन्हें मानवीय बनाया जाए, जिसके केन्द्र में दया, प्रेम, पारस्परिकता, विश्व-बंधुत्व जैसे मूल्यहों क्योंकि सच्चा धर्म कभी भी लोगों को तोड़ता नहीं बल्कि जोड़ता है।
महत्वपूर्ण शब्दावली : हिन्दू धर्म, राष्ट्रवाद, धर्म संसद, विश्वबंधुत्व, मानवता, भारतीय संस्कृति ।