भावनाओं की अभिव्यक्ति के कई साधन हैं। व्यक्ति जिन्हें अपने-अपने तरीके से व्यक्त करता है। कभी बोलकर, गाकर और कभी नृत्य के माध्यम से। इन सबमें नृत्य ही एक ऐसा माध्यम है, जिसमें भावनाओं की सशक्त प्रस्तुति अपनी आंगिक भाव आंगिकाओं द्वारा की जाती है। आरंभिक मानव ने अपनी सहज क्रियाएँ, प्रतिक्रियाएँ, प्रकृति से संबंध, अनुकरण, अपनी जिज्ञासाओं की पूर्ति, नये प्रयोग, नई खोज और नई सोच जैसी प्रक्रियाओं से स्वयं को विकास की परम्परा से जोड़ा। अपनी कल्पना और सृजनात्मक शक्ति से ही नृत्य प्रकृति से समाज में एक मूर्त रूप ले सका । भले ही पूर्व में उसकी शारीरिक क्रियाएँ संतुलित नहीं थीं पर धीरे-धीरे सतत् प्रयोग से स्पष्टता विकसित होती गई ।
अपने मन के भावों को समझाने के लिए, ध्वनि और आंगिक क्रियाएँ धीरे-धीरे संशोधित होकर एक नये रूप में बदलती और निखरती गई। संप्रेषणीयता का इससे अच्छा और क्या रूप हो सकता था। अपनी प्रारंभिक अवस्था से निकलकर नृत्य नियमबद्ध और कलात्मकता की ओर चला तब इसका सशक्त शास्त्रीय रूप विकसित हुआ जो राजकीय घरानों में प्रदर्शित हुआ। काल से ही विभिन्न अवसरों पर नृत्य के आयोजन होते रहे हैं। पहले यह केवल कुछ खास वर्ग तक ही सीमित था। राजमहल, रजवाड़ों अथवा राजघरानों में नर्तक एवं नर्तकियाँ हुआ करती थीं, जो सभासदों और राजा के मनोरंजन हेतु नृत्य किया करते थे। जिसके प्रमाण हमें तत्कालीन शिलालेखों और पुरातात्विक सामग्री में मिलते हैं। तब नृत्य सार्वजनिक रूप से मान्य और प्रतिष्ठित नहीं था। नृत्य में संलग्न लोगों के लिये 'नचनियाँ' शब्द का प्रयोग किया जाता था। प्रस्तुत शोध आलेख में नृत्य के संबंध में प्राप्त सामग्री के आधार पर मानव - शास्त्रीय तथा समाजशास्त्रीय अध्ययनों का विश्लेषण कर नृत्य को सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है।