युग के प्रभाव के अनुरूप काव्य के वर्ण्य विषय और दृष्टि परिवर्तित होते रहते हैं। आज की कविता बौद्धिक युग की कविता है। आज के नव-साम्राज्यवाद का खतरा एक साथ राष्ट्रीय सम्प्रभुता, जनतंत्र और मानवीय संवेदनशीलता पर गहरे रूप में एक साथ है। इस गहन संकट को पकड़ने वाली, उसकी अभिव्यक्ति से मनुष्य को उद्वेलित कर देने वाली कविता ही आज हिन्दी कविता को नये शिखर की ओर ले जा सकती है। इक्कीसवीं सदी में भाषा-संकट भी है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में सदियों से स्थापित हमारे नैतिक मूल्य और आदर्शों को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं, फलस्वरूप समाज में तमाम तरह की विकृतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। आज स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, विकलांग विमर्श, प्रगतिशील, परम्परावादी, उत्तर आधुनिक आदि अनेक धाराओं व वाद विशेष को केन्द्र में रखकर काव्य लिखे जा रहे हैं। अतिबौद्धिकता और अधुनातन की वजह से कविता कामिनी के लालित्य में कमी आई है। किन्तु यह भी सत्य है कि इक्कीसवीं सदी कविता के लिए नहीं है, कहानी, उपन्यास, निबंध संस्मरण आदि गद्य में ज्यादा अन्तर भी नहीं रहा। इन सबके बावजूद हम कह सकते हैं कि काव्य में लोकमंगल की भावना आज की कविता में भी सर्वोपरि है।