आज दुनिया में सबसे चर्चित विधा उपन्यास है। वैश्वीकरण के इस दौर में हिंदी उपन्यास में रचनात्मकता के साथ-साथ जीवन-बोध का विस्तार देखा जा सकता है। आज का लेखक यथार्थवाद की यांत्रिकता से बाहर निकलकर आधुनिकता के सर्वसत्तावादी रूपों से टकराते हुए राष्ट्र के मन पलती आशाओं, शंकाओं और विद्रताओं को खुले मन से पढ़ता हैं। आज उपन्यास का युग है। चारों और बाजारवाद का साम्राज्य है। आज बाजार ने मनुष्य की रूचियाँ बदल दी हैं परंतु यह भी सत्य है कि साहित्य कभी बाजार की रूचियों और शोर में बह नहीं सकता, वरन् वह रूचियों का रचनात्मक पुननिर्माण करना है, जहाँ आकर पाठक थोड़ी देर खुलकर सांस लेता है। आज बर्बर सामंती पुनरूत्थान के खिलाफ आवाजें हैं तो साथ ही राष्ट्र पर मंडराती नव- औपनिवेशिक छायाओं के चित्र भी हैं। फलतः उपन्यास एक दार्शनिक विद्रोह है, प्रतिवाद है और उनकी आवाज है जो हाशिये पर हैं, भेदभाव के शिकार हैं या बहिष्कृत हैं।