गुप्तजी केवल कवि नहीं थे, बल्कि उनका व्यक्तित्व भारतीय संस्कृति की नयी व्याख्या करने वाले प्रतिष्ठापक का था। अपनी इस प्रतिस्थापना के लिये उन्होंने न तो कोई आन्दोलन किया और न ही भारतीय संस्कृति के नये पुराने आदर्शों को कभी विवाद का विषय बनाया। उन्होंने समाज के सामने सहदयता और सामंजस्य का एक ऐसा एकीकरण प्रस्तुत किया जो सबको मान्य हो और जिसका सब सम्मान करें। निश्चित ही, उनका यह समीकरण राजनीति और धर्म से परे मानवता की बेदी पर प्रतिष्ठित था। यही उनकी विशेषता है और उनकी रचनाधर्मिता भी कि वे नये के स्वीकार के बदले पुराने को हेय नहीं मानते और पुराने के शुभ को ग्रहण करते समय उनका नया भाव बोध किसी प्रकार का अवरोध भी उत्पन्न नहीं करता। वैसे किसी भी राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिये यह जीवन-दृष्टि आवश्यक है। गुप्तजी में यह मानववादी दृष्टि विद्यमान थी। अपने इस महत् कार्य के लिए उन्होंने एक ओर किसान, श्रमिक जैसे उपेक्षित पात्र और उनके समाज को लिया तो दूसरी ओर ऐतिहासिक अथवा पौराणिक पात्र और उनके चरित्रों को लेकिन ध्यान रखना होगा कि अपनी इस अभिव्यक्ति में उन्होंने इतिहास या पुराण के प्रमुख पात्रों की अपेक्षा लघु और उपेक्षित पात्रों को ही केन्द्र में रखा 'साकेत में उर्मिला को 'यशोधरा' में यशोधरा को तथा विष्णुप्रिया' में विष्णुप्रिया को केन्द्रीय पात्र बनाया सबसे बड़ी बात यह है कि गुप्तजी ने इन पात्रों के मानवीय रूप की प्रतिष्ठा की। उनके इस रूप की जो अब तक कवि मनीषियों द्वारा समाहित नहीं किए जा सके थे अथवा उनके उस संवेदनात्मक पक्ष पर ध्यान नहीं दिया गया था जो इनको विशिष्ट बनाते हैं गुप्तजी ने इन उपेक्षित पात्रों के औदात्य को समझा भी और उनके मानवीय संवेदनाओं का उद्घाटन भी किया। उन्होंने उनके मानवीय दर्द, मूल्यबोध, अस्मिता और संघर्ष को सर्वथा नवीन रूप में रूपायित किया। इस संबंध में डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने ठीक ही लिखा है। उनका कहना है कि "गुप्तजी ने नारियों के प्रति जिस पूज्य भाव को स्थान-स्थान पर व्यक्त किया है, वह रूढ़िवादी परिवार के कवि की दृष्टि से विचित्र हो सकता है, किंतु कवि की दृष्टि इतनी व्यापक है कि वह नारी के अधिकारों को युगधर्म के साथ घटित करके ही स्थापित करने में मानवता का कल्याण देखता है।" (द्विवेदी युगीन हिंदू नवरत्न) गुप्त जी के आदर्श स्थापन में संकीर्णता का भाव नहीं है, सम्पूर्णता का भाव है। उन्होंने भारतीय नारी के संदर्भ में 'अबला जीवन' की कहानी प्रस्तुत करते समय 'आँचल में है दूध और आँखों में पानी की व्यंजना द्वारा जो चित्र अंकित किया है, उसमें नारी जाति की एक विशेषता है। विवशता अथवा परवशता न होकर दायित्वबोध और कर्तव्य पालन की व्यंजना है।